लखनऊ: फंगल केराटाइटिस के लिए नवीन ओफ़्थेल्मिक फोर्मूलेशन के लिए स्वदेशी प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण:
भारत सरकार के वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद की एक घटक प्रयोगशाला सीएसआईआर-सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएसआईआर-सीडीआरआई) ने फंगल केराटाइटिस के लिए इस नवीन नेत्र संबंधी फोर्मूलेशन के आगे के विकास के लिए सिप्ला लिमिटेड को नई स्वदेशी तकनीक हस्तांतरित की। सहयोग का उद्देश्य फंगल केराटाइटिस के लिए एक सुरक्षित और प्रभावकारी दवा विकसित करने के लिए दोनों संस्थानों की संयुक्त विशेषज्ञता और संसाधनों का लाभ उठाना है।
विश्व स्तर पर, हर साल फंगल केराटाइटिस के लगभग 1.2 मिलियन मामले सामने आते हैं, जिनमें उष्णकटिबंधीय देशों में अधिक घटनाएँ दर्ज की जाती हैं। फंगल केराटाइटिस अक्सर नेत्र संबंधी आघात और कार्बनिक पदार्थों से फंगल रोगजनकों के संपर्क में आने के बाद होता है, जिससे कृषि श्रमिकों को अधिक जोखिम होता है। अन्य जोखिम कारकों में स्थानीय स्टेरॉयड आई ड्रॉप का उपयोग, चोट, खराब व्यक्तिगत स्वच्छता और नियमित कॉन्टैक्ट लेंस पहनना शामिल हैं। उपचार न किए जाने पर, स्थिति के परिणामस्वरूप कॉर्निया नष्ट हो सकती है, जिससे दृष्टि की गहरी हानि हो सकती है। मौजूदा उपचारों की सीमाएँ हैं, जैसे दवाओं के लंबे समय तक और बार-बार उपयोग की आवश्यकता, और उभरती दवा प्रतिरोध।
सीएसआईआर-सीडीआरआई ने आंखों में इसकी डिलीवरी को अनुकूलित करने के लिए एंटीफंगल दवा के इस फॉर्मूलेशन को विकसित एवं स्थानांतरित किया है। प्रीक्लिनिकल अध्ययनों में, यह फॉर्मूलेशन संक्रमण को तेजी से कम कर रोग का समाधान करता है। अब, सिप्ला लिमिटेड उत्पाद का आगे विकसित करेगी, एवं अन्य आवश्यक अध्ययन करेगी तथा जरूरतमंद लोगों तक पहुंच सुनिश्चित करते हुए व्यावसायीकरण के लिए विनियामक मंजूरी लेगी।
पीसीआर-आधारित डायग्नोस्टिक्स एवं बायोमेडिकल रिसर्च के लिए फॉस्फोरामिडाइट-आधारित क्वेंचर्स की स्वदेशी तकनीक का हस्तांतरण सीएसआईआर-सीडीआरआई में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस समारोह के अवसर पर, फॉस्फोरामिडाइट-आधारित फ्लोरोसेंस क्वेंचर्स की एक और स्वदेशी तकनीक ईएसएससीईई बायोटेक प्राइवेट लिमिटेड को आज हस्तांतरित की गई। ईएसएससीईई बायोटेक लिमिटेड इन क्वेंचर अभिकर्मकों का न केवल भारत में बल्कि अमेरिका और यूरोपीय बाजार में भी व्यावसायीकरण करेगा।
टीम लीडर डॉ. अतुल गोयल ने बताया कि व्यावसायिक रूप से उपलब्ध क्वेंचर की संकीर्ण क्वेंचिंग लिमिट फ्लोरोसेंट रंगों के साथ उनके संयोजन को प्रतिबंधित करती है और इस प्रकार नैदानिक अध्ययनों (डायग्नोस्टिक्स) में इनकी उपयोगिता को सीमित करती है। व्यापक अवशोषण गुण वाले सीडीआरआई के फॉस्फोरामिडाइट-आधारित क्वेंचर को फ्लोरोफोर्स की एक विस्तृत श्रृंखला की उत्सर्जन विशेषताओं (क्रियाशीलता) से मेल खाने के लिए डिज़ाइन किया गया है, जिसका उपयोग पीसीआर-आधारित एवं न्यूक्लिक एसिड आधारित बायोमेडिकल अनुसंधान में किया जा सकता है।
उन्होंने बताया कि वर्तमान में, शोधकर्ता 20 साल से अधिक पुराने मल्टीपल क्वेंचर्स का उपयोग कर रहे हैं, जो महंगे हैं और पूरी तरह से विदेशों से आयात किए जाते हैं, जिससे हमारे देश पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है। जीवन विज्ञान अनुसंधान में एकल या दोहरे लेबल वाले ऑलिगोन्यूक्लियोटाइड्स के अनुप्रयोग, साथ ही नैदानिक चिकित्सा विज्ञान और निदान में उनकी बढ़ती मांग, इस नवाचार के महत्व को रेखांकित करती है। इन नए संशोधित क्वेंचर्स की शुरूआत आर्थिक विकास को उत्प्रेरित करने और वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय में भारत की स्थिति को मजबूत करने के लिए तैयार है।
इस अवसर पर अपनी दो स्वदेशी प्रौद्योगिकियों को अपने उद्योग भागीदारों को हस्तांतरित करते हुए, सीएसआईआर-सीडीआरआई निदेशक डॉ. राधा रंगराजन ने कहा, “हमारा शोध भारत की अपूरित नैदानिक आवश्यकताओं के लिए नवीन, लागत प्रभावी (सस्ते एवं प्रभावी) समाधान खोजने पर केंद्रित है”। उन्होंने फंगल केराटाइटिस के लिए नवीन फॉर्मूलेशन की टीम को बधाई दी, जिसमें डॉ. रबी एस. भट्टा, डॉ. एस.के. शुक्ला और डॉ. माधव एन. मुगले और उनके शोधकर्ताओं की टीम एवं बीडीआईपी टीम के सदस्य शामिल हैं। । और उन्होंने फॉस्फोरामिडाइट-आधारित क्वेंचर्स के विकास के लिए डॉ. अतुल कुमार और उनकी शोध छात्रा सुश्री प्रियंका पांडे को भी बधाई दी।
एनएसडी-2024 पर, सीडीआरआई ने शुरू की ट्रांसलेशनल रिसर्च पर एक नई व्याख्यान श्रृंखला
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस 2024 (एनएसडी-2024) के अवसर पर, सीएसआईआर-सीडीआरआई, लखनऊ ने ट्रांसलेशनल रिसर्च पर एक नई व्याख्यान श्रृंखला शुरू की, जो शोधकर्ताओं को अपने बुनियादी शोध को व्यावहारिक अनुसंधान अथवा नई थेरेप्युटिक्स (चिकित्साविधि) के रूप में ट्रांस्लेट (अनुवादित) करने के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रदान करेगी। इस अवसर पर उद्घाटन भाषण में, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली में गैस्ट्रोएंटरोलॉजी और मानव पोषण के प्रोफेसर, प्रख्यात वक्ता डॉ. विनीत आहूजा ने “इन्फ्लेमेटरी बाउल डिजीज में माइक्रोबायोम मैनिपुलेशन थैरेपीज़” विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने गैस्ट्रो-इंटेस्टाइनल (जीआई) रोगों के मुद्दे को संबोधित किया। उन्होंने कहा, गट माइक्रोबायोटा (आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव) आंतों के स्वास्थ्य के साथ-साथ बीमारियों (जैसे सूजन आंत्र रोग (आईबीडी), क्रोहन रोग एवं अल्सरेटिव कोलाइटिस (यूसी) आदि) को नियंत्रित करता है।
फीकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लांटेशन (एफएमटी) (यानी स्वस्थ वयक्ति के विष्ठा/मल से रोगी की आंत में सूक्ष्मजीवों का प्रत्यारोपण), गैस्ट्रो-इंटेस्टाइनल (आंत्र संबंधी) रोगों के उपचार के लिए तेजी से कारगर हो सकता है। उन्होंने आगे कहा कि एफएमटी की व्यावहारिक जटिलताओं पर विचार करते हुए, आंत्र माइक्रोबायोटा से व्युत्पन्न मेटाबोलाइट्स को ऐसे जीआई (आंत्र संबंधी) रोगों के उपचार के लिए संभावित नए चिकित्सीय के विकल्प के रूप में भी देखा जा सकता है। उन्होंने आग्रह किया कि सीएसआईआर-सीडीआरआई और एम्स, नई दिल्ली की टीमें इस मेटाबोलाइट्स आधारित इस नई ट्रांसलेशनल थेराप्यूटिक्स (चिकित्साविधि) के विकास के लिए साथ मिलकर काम कर सकती हैं।
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