अपने छोटे से गाँव को छोड़ के
ज़िन्दगी पाने की होड़ में
दरबदर भटकता जा रहा है
वो इक मकां को
आशियां बना रहा है
कभी कारखानों में
सांसे गवा रहा है
कभी बस बोझ तुम्हारा
ढोते ही जा रहा है
कभी गली कूचों में
छोटे छोटे काम करता
कभी खेतो को तुम्हारे
खून से सींचे जा रहा है
आज की आज सोच कर
कल की कल ही सोचेगा
सदियो से वो घर को अपने
दिहाड़ी से खींचे जा रहा है
पिस्ता है वो सदियो से
पैरो के नीचे दबता जा रहा है
पूछो खुद से या पूछो सब से
उसकी मुस्कान कहाँ है,
जिस मजदूर का दिवस
आज हर कोई मना रहा है
अनुजा